मिटटी की गुल्लक और गुल्लक में खुशियाँ ।
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बचपन के उन दिनों में पापा या मम्मी से मिले पैसे तुरंत ही गुल्लक की ओर बढ़ जाते थे। फिर गिनती कर के बताते थे की मेरे पास 40-50 रूपए हो गए।
चेहरे पर बिखरी ख़ुशी ऐसी होती थी कि मानो मेरे पास कोई खजाना हो ।
और फिर अंदाजा लगाने की विधा वहीं से शुरू ही जाती थी कि "अभी मम्मी बर्थडे में इतने पैसे देंगी। पापा इतने पैसे देंगे ।
मौसी,चाची,मामी भी कुछ पैसे आकर देंगी 😊
फिर मेरे पास खूब पैसे हो जायेंगे। कान के पास उस गुल्लक को हिलाकर सिक्कों की खनक को सुन्ना और अंदाज़ा लगाना की कितने पैसे हो गए होंगे,सच में कितनी अजीब सी ख़ुशी होती थी उन लम्हों में.
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लेकिन नन्हे हांथों के पैसों को समेटती गुल्लक अब कहीं नहीं दिखाई देती.
उसकी जगह अब लोहे और प्लास्टिक के ताले वाली गुल्ल्को ने ले ली.
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आखिर कहाँ है वो देशी अंदाज़
वो मिटटी की खुशबू, वो अजीब सी ख़ुशी,
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"मिटटी की खुशबू" भी अब ख़त्म होने लगी है.
बरसात में मिटटी के कुल्हड़ की चाय का स्वाद अब किसी नुक्कड़ की दुकान पर नहीं मिलता।
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अब गाँवों में भी मिट्टी के बर्तनों की वो शौंधी खुशबू नहीं मिलती.
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बस अस्तित्व में हैं तो वो कुल्हड़ जिसमे "लस्सी" का स्वाद दोगुना हो जाता है.
अगर इसी तरह दौर चलता रहा तो हम सब "मिटटी की खुश्बू" सिर्फ बॉलीवुड के गीतों में महसूस कर पाएंगे.
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पर अफ़सोस
"वो बीते दिन न वापस आयेंगे"
(ये ब्लॉग पढने के लिए आभार आप सभी का)
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बचपन के उन दिनों में पापा या मम्मी से मिले पैसे तुरंत ही गुल्लक की ओर बढ़ जाते थे। फिर गिनती कर के बताते थे की मेरे पास 40-50 रूपए हो गए।
चेहरे पर बिखरी ख़ुशी ऐसी होती थी कि मानो मेरे पास कोई खजाना हो ।
और फिर अंदाजा लगाने की विधा वहीं से शुरू ही जाती थी कि "अभी मम्मी बर्थडे में इतने पैसे देंगी। पापा इतने पैसे देंगे ।
मौसी,चाची,मामी भी कुछ पैसे आकर देंगी 😊
फिर मेरे पास खूब पैसे हो जायेंगे। कान के पास उस गुल्लक को हिलाकर सिक्कों की खनक को सुन्ना और अंदाज़ा लगाना की कितने पैसे हो गए होंगे,सच में कितनी अजीब सी ख़ुशी होती थी उन लम्हों में.
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लेकिन नन्हे हांथों के पैसों को समेटती गुल्लक अब कहीं नहीं दिखाई देती.
उसकी जगह अब लोहे और प्लास्टिक के ताले वाली गुल्ल्को ने ले ली.
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आखिर कहाँ है वो देशी अंदाज़
वो मिटटी की खुशबू, वो अजीब सी ख़ुशी,
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"मिटटी की खुशबू" भी अब ख़त्म होने लगी है.
बरसात में मिटटी के कुल्हड़ की चाय का स्वाद अब किसी नुक्कड़ की दुकान पर नहीं मिलता।
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अब गाँवों में भी मिट्टी के बर्तनों की वो शौंधी खुशबू नहीं मिलती.
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बस अस्तित्व में हैं तो वो कुल्हड़ जिसमे "लस्सी" का स्वाद दोगुना हो जाता है.
अगर इसी तरह दौर चलता रहा तो हम सब "मिटटी की खुश्बू" सिर्फ बॉलीवुड के गीतों में महसूस कर पाएंगे.
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पर अफ़सोस
"वो बीते दिन न वापस आयेंगे"
(ये ब्लॉग पढने के लिए आभार आप सभी का)
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