सपनें हमारे लिए कुछ न कुछ सन्देश छोड़ जाते हैं जिनमे से कुछ अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे और उनमे भी जो कुछ अच्छे होते हैं हम उन्हें पूरे होने की कामना करते हैं और जो बुरे होते हैं उन्हें भूल जाने की या न होने की खैर, सपनों की एक खासियत अच्छी होती है कि वो "सपने" होते हैं जिंनका वास्तविकता से काफी दूर का फासला होता है. "सपनें" जिनमे से कुछ हमारे लिए पता नहीं कौन सा सन्देश लेकर आते हैं जो पता नहीं हमें क्या बताना चाहते हैं हम स्वयं नहीं समझ पाते हैं और एक दिन जब वो क्षण आता है जब हमें उस सपने की झलक महसूस होती है तब ये होता है कि हाँ ये तो मेरे साथ पहले भी हो चुका है या शायद हम पहले भी यहाँ आ चुके हैं, दरअसल ये जरूरी नहीं की ये कोई पुनर्जन्म वाला हिसाब किताब हो या फिर किसी फिल्म में दर्शाया गया कोई सीन, कुछ सपनों में जमीन भी होती है जो कभी कभी वास्तविक होती है
देर रात तक शॉपिंग की वजह से आज थोड़ा लेट सोया था, थोड़ा क्या उसे ज्यादा ही कहेंगे मध्यरात्रि से 2 घंटे लेट सोना 'थोड़ा' नहीं कहलाया जा सकता और वैसे भी सोशल मीडिया ने लगभग लोगों की नींद को काफी हद तक कम कर दिया है और हास्य तरीके से देखा जाए तो शायद इसी वजह से लोगों के सपने बहुत कम हो गए हैं या यूं कहें की लोग अब खुली आँखों से ही सपने देखने लगे हैं. खैर, आज मैंने बड़ा ही अजीब सपना देखा और अजीब भी किस तरह का जिसकी केटेगरी के बारे में भी मुझे कुछ पता नहीं सुबह उस सपने के ख़त्म होने तक, जब तक कि मैं नींद में ही था मैंने उसके अंत होने तक सोंच रहा था कि इसे अपने ब्लॉग में लिखूँगा यही मैंने उस "लेडी" से भी वादा किया था जो उस सपने का मुख्य किरदार थी और अजीब बात तो ये की उस सपने में "मैं" तो था पर फिर भी दूर दूर तक नज़र नहीं आ रहा था महसूस कर रहा था, सुन रहा था और देख भी रहा था पर फिर भी वहां नहीं था...सपनों की यही तो एक बात होती है कि कुछ याद रहते हैं और कुछ बिल्कुल धरातल से ही गायब हो जाता हैं उसमे याद रह जाता है तो सिर्फ उनकी शुरुआत और उनका अंत
एक सुहानी सी सुबह अपने देश से दूर जर्मनी के किसी एक छोटे से शहर में किसी छोटे से चर्च के हल्की हल्की ओस से भरे हरी घास वाले लॉन में लगे झूलानुमा एक लंबी सी मेज़ पर हम दोनों बैठे थे वो मुझे अपनी आप बीती सुना रही थी और पता नहीं मैं किस भाषा में उससे उसकी कहानी सुन रहा था शायद सपनो की भी अपनी अलग एक भाषा होती है जो सिर्फ सपने में मौजूद लोग ही सुन और समझ पाते हैं, पता नहीं ऐसा क्या था उसकी अपनी कहानी में जो एकटक मैं सिर्फ उसे सुन रहा था और जाने ऐसा क्या था उसकी कहानी में जो कि मेरी आँखों में हल्के हल्के आंसू ले आया था..."आंसू" जो की मुझे दिख तो नहीं रहे थे पर महसूस साफ़ साफ़ हो रहे थे...सुबह चढ़कर दोपहर में परिवर्तित हो चुकी थी और दोपहर उतर कर शाम में अब उसकी कहानी ख़त्म हो चुकी थी और मैं पूरी तरह भावुक हो चुका था भीनी आंखों से मैंने उससे विदाई ली और अपने वापस अपने देश आ चुका था.....इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर इंडियन एयरवेज की उस फ्लाइट से उतरते ही सुबह की 6 बजे की स्नूज़ होकर पांचवी बार बज रही अलार्म को मम्मी ने स्लाइड से बंद करके मुझे जगाकर ज़ोर से चिल्लाते हुए कह रहीं थी की "आज ऑफिस नहीं जाना क्या ??"
देर रात तक शॉपिंग की वजह से आज थोड़ा लेट सोया था, थोड़ा क्या उसे ज्यादा ही कहेंगे मध्यरात्रि से 2 घंटे लेट सोना 'थोड़ा' नहीं कहलाया जा सकता और वैसे भी सोशल मीडिया ने लगभग लोगों की नींद को काफी हद तक कम कर दिया है और हास्य तरीके से देखा जाए तो शायद इसी वजह से लोगों के सपने बहुत कम हो गए हैं या यूं कहें की लोग अब खुली आँखों से ही सपने देखने लगे हैं. खैर, आज मैंने बड़ा ही अजीब सपना देखा और अजीब भी किस तरह का जिसकी केटेगरी के बारे में भी मुझे कुछ पता नहीं सुबह उस सपने के ख़त्म होने तक, जब तक कि मैं नींद में ही था मैंने उसके अंत होने तक सोंच रहा था कि इसे अपने ब्लॉग में लिखूँगा यही मैंने उस "लेडी" से भी वादा किया था जो उस सपने का मुख्य किरदार थी और अजीब बात तो ये की उस सपने में "मैं" तो था पर फिर भी दूर दूर तक नज़र नहीं आ रहा था महसूस कर रहा था, सुन रहा था और देख भी रहा था पर फिर भी वहां नहीं था...सपनों की यही तो एक बात होती है कि कुछ याद रहते हैं और कुछ बिल्कुल धरातल से ही गायब हो जाता हैं उसमे याद रह जाता है तो सिर्फ उनकी शुरुआत और उनका अंत
एक सुहानी सी सुबह अपने देश से दूर जर्मनी के किसी एक छोटे से शहर में किसी छोटे से चर्च के हल्की हल्की ओस से भरे हरी घास वाले लॉन में लगे झूलानुमा एक लंबी सी मेज़ पर हम दोनों बैठे थे वो मुझे अपनी आप बीती सुना रही थी और पता नहीं मैं किस भाषा में उससे उसकी कहानी सुन रहा था शायद सपनो की भी अपनी अलग एक भाषा होती है जो सिर्फ सपने में मौजूद लोग ही सुन और समझ पाते हैं, पता नहीं ऐसा क्या था उसकी अपनी कहानी में जो एकटक मैं सिर्फ उसे सुन रहा था और जाने ऐसा क्या था उसकी कहानी में जो कि मेरी आँखों में हल्के हल्के आंसू ले आया था..."आंसू" जो की मुझे दिख तो नहीं रहे थे पर महसूस साफ़ साफ़ हो रहे थे...सुबह चढ़कर दोपहर में परिवर्तित हो चुकी थी और दोपहर उतर कर शाम में अब उसकी कहानी ख़त्म हो चुकी थी और मैं पूरी तरह भावुक हो चुका था भीनी आंखों से मैंने उससे विदाई ली और अपने वापस अपने देश आ चुका था.....इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर इंडियन एयरवेज की उस फ्लाइट से उतरते ही सुबह की 6 बजे की स्नूज़ होकर पांचवी बार बज रही अलार्म को मम्मी ने स्लाइड से बंद करके मुझे जगाकर ज़ोर से चिल्लाते हुए कह रहीं थी की "आज ऑफिस नहीं जाना क्या ??"
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